स्वच्छ भारत अभियान: कितना स्वच्छ-कितना सच

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झूठे वायदे और दावे, स्वयं के प्रचार के लिए सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग, अखबारों की सुर्ख़ियों में छाने और मूल समस्या से ध्यान बांटने के लिए भव्य कार्यक्रम करना, मोदी सरकार की कार्यशैली का पर्याय बन चुका है।

15 अगस्त 2014 को लालकिले की ऐतिहासिक प्राचीर से प्रधानमंत्री ने घोषणा की थी कि महात्मा गाँधी जी की 150 वीं वर्षगांठ अर्थात 2 अक्टूबर 2019 तक देश की हर गली, स्कूल, धार्मिक स्थल, अस्पताल और दफ्तरों में गन्दगी का एक तिनका भी नहीं रहने देंगें।  आज चार वर्ष बीत जाने के बावजूद अर्थात लक्षित तिथि से मात्र एक वर्ष पूर्व भी,  प्रधानमंत्री की घोषणा के पूरे होने के लक्षण दूर दूर तक दिखाई भी नहीं दे रहे हैं।

अनेक अन्य योजनाओं और कार्यक्रमों की भांति, मोदी जी ने यूपीए सरकार के ‘निर्मल भारत अभियान’ में  थोड़ा फेर बदल किया, उसे नया नाम दिया और फिर देश की नामी गिरामी हस्तियों की मौजूदगी में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की शुरुआत करने की घोषणा कर दी।

ये कार्यक्रम अपने शुरूआती दिन से की कमजोर नींव पर खड़ा था, घोषणा-घोषणा ही रही, नतीजा वही ढाक के तीन पात, चार साल में कार्यक्रम ठीक से ज़मीन पर भी न उतर पाया, और मोदी जी के अन्य कार्यक्रमों की तरह स्वच्छ भारत अभियान भी पूरी तरह फेल हो गया। अगर इस अभियान में कुछ बचा है तो वो है गन्दगी के ढेर के ऊपर, स्वच्छ भारत मिशन का मखौल उड़ाते, मुस्कराते मोदी जी की फोटो के साथ, करोडो रुपये खर्च करके लगे हुए विज्ञापन वाले होर्डिंग।

संक्षिप्त शब्दों में यदि स्वच्छ भारत अभियान को परिभाषित किया जाय तो कहा जा सकता

है कि “झूठे वायदों और दावो, अव्यवहारिक और अवास्तविक लक्ष्यों, उपेक्षित मुद्दों और बारम्बार झूठ बोलने का ही दूसरा नाम स्वच्छ भारत अभियान है, जो पूरी तरह से असफल हुआ है अगर इसमें थोड़ी बहुत सफलता है तो वो है इसके विज्ञापन और बड़े बड़े होर्डिंग्स।”

  1. बिना पानी के शौचालय, बने पर इस्तेमाल नहीं :

शौचालय बने पर पानी की कमी या अन्य कारणों से इस्तेमाल नहीं हुए, अर्थात स्वच्छता की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है। ये सच है कि झूठ की कोई बुनियाद नहीं होती है और इसी तरह स्वच्छ भारत मिशन के झूठ की पोल भी देर सवेर खुलनी ही थी, और इसकी पोल खोली खुद सरकारी आंकड़ों ने, जिन पर सी.ए.जी. और संसद ने भी अपनी मोहर लगा दी।

हवाई दावों को सच साबित करने के लिए बड़े पैमाने पर शौचालयों के निर्माण का लक्ष्य रखा गया, जिसने बेहतर स्वास्थ्य और दीर्घकालीन स्वास्थ्य परिणामों के लक्ष्य को पूरी तरह से भटका दिया। सरकारी पैसे का दुरूपयोग करते हुए, बड़े पैमाने पर अधांधुध तरीके से शौचालयों का निर्माण किया गया, जबकि सच्चाई ये है कि अनेक स्थानों में पानी की कमी के कारण, शौचालयों का इस्तेमाल ही नहीं हो सका है,  और इस बात का उल्लेख तो सी.ए.जी. ने भी अपनी रिपोर्ट में किया है। बड़े पैमाने पर स्वच्छ भारत अभियान के तहत निर्मित शौचालय घास-लकड़ी रखने या अन्य सामान के लिए गोदामों के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे हैं।  ग्रामीण विकास से सम्बंधित लोकसभा की समिति ने जुलाई 2018 की रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है कि स्वच्छता से सम्बंधित आंकड़े सिर्फ ‘कागजी’ हैं और इनका हकीकत से कोई वास्ता नहीं है। सिर्फ शौचालय बनाने से न देश स्वच्छ होगा और नहीं खुले में शौच मुक्त,  इसके लिए अनेक तरह के प्रयास किये जाने चाहिए जिनसे ये सरकार और इनका स्वच्छ भारत मिसन कोसो दूर है।

मोदी सरकार का ‘सिर्फ शौचालय निर्माण’ उस ज़मीनी हक़ीक़त से बहुत दूर है, जिसमें शौचालय के उपयोग करने के प्रति लोगों में व्यवहार परिवर्तन के लिए जागरूकता, सूचना, शिक्षा और प्रचार-प्रसार की गतिविधियां किया जाना अति महत्वपूर्ण है, सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार सरकार ने ये सब कुछ नहीं किया लेकिन वर्ष 2017 तक 570 करोड़ अखबार, टेलीविज़न और रेडियो में विज्ञापनों पर खर्च कर दिए।  विश्व बैंक ने भी स्वच्छ भारत अभियान को पूरी तरह विफल कहते हुए इस कार्यक्रम के लिए बैंक की तरफ से दी जाने वाली क़िस्त को रोक दिया है।

  1. स्वच्छ पेयजल के लिए कोई व्यवस्था न होना :

बिना स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता के स्वच्छ भारत नहीं हो सकता है।  अत्यधिक प्रचार और शौचालयों के निर्माण की अंधी दौड़ ने स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाने के कार्यक्रम को पूरी तरह नज़र अंदाज कर दिया है।  मोदी सरकार बनने के पश्चात पेयजल उपलब्ध करवाने के लिए आवंटित धन को घटा दिया है।

सरकार के स्वच्छ भारत सर्वेक्षण में  भोपाल को लगातार दो वर्ष तक देश का दूसरा सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है, जबकि एक स्वंत्रत संस्था द्वारा किये गए सर्वेक्षण में पाया गया कि भोपाल शहर के पेयजल में मानव मूत्र से अधिक वैक्ट्रिया (जीवाणु) मौजूद हैं, इसी अध्ययन में यह भी पाया गया है कि पीने के पानी में वैक्ट्रिया और अन्य घुलनशील गन्दगी स्वीकृत मानकों से 2400 गुणा से अधिक है।

  1. खुले में शौचमुक्त गुजरात :

केंद्र सरकार ने लोकसभा में बताया कि सन 2017 में गुजरात को खुले में शौचमुक्त राज्य घोषित कर दिया गया है।  हालाँकि पूरी तरह  झूठ की बुनियाद पर खड़े इस दावे की सच्चाई अब सामने आने लगी है।  केंद्र  सरकार की संस्था सी.ए.जी ने अपनी जांच में पाया कि 2014-17 के बीच के समय के लिए 8 जिला पंचायत के 120 ग्राम पंचायतो ने जो सूचना उपलब्ध करवाई थी, उसके अनुसार 29 प्रतिशत परिवारों के पास किसी भी प्रकार के (व्यक्तिगत या सामुदायिक)  शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं है।  अर्थात 29 प्रतिशत परिवार खुले मैदानों या सड़को के किनारे शौच के लिए जाते हैं।

विभिन्न अध्ययनों में पाया गया है कि झूठ की आधारशिला पर खड़े ‘गुजरात मॉडल’ को अन्य राज्यों में भी अपनाकर ‘खुले में शौचमुक्ति’ के झूठे दावे किये जा रहे हैं और इन दावों के समर्थन में फर्जी आंकड़े बनाये जा रहे हैं।

वाटर ऐड और ‘प्रैक्सिस इंस्टिट्यूट फॉर डेवलपमेंट स्टडीज’ के संयुक्त अध्ययन में पाया गया है कि तीन राज्यों (राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश) के खुले में शौचमुक्त घोषित 8 गांवों में से सिर्फ एक गांव पूरी तरह खुले में शौच मुक्त है।  बाकि 7 गांवों को लेकर किया गया दावा पूरी तरह झूठे आंकड़ों और आधारहीन तथ्यों पर खड़ा है। सेण्टर फॉर पालिसी रिसर्च नामक संस्था के सर्वेक्षण में पाया गया है कि उदयपुर (राजस्थान)  के खुले में शौच मुक्त घोषित गांवो में सिर्फ एक गांव सच्चे तौर पर पूरी तरह खुले में शौच मुक्त है।

2 अक्टूबर 2018 से पहले उत्तर प्रदेश को खुले में शौचमुक्त घोषित करवाने के लिए बीजेपी सरकार ने सारे हथकंडे अपनाये हैं, यहाँ तक कि आंकड़ों में भी फर्जीवाड़ा किया जा रहा है।  इस तरह के अवास्तविक और असंभव से प्रतीत होने वाले लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए आंकड़ों में धांधलेबाजी करने का दबाव स्वयं प्रधानमंत्री के स्तर से डाला जा रहा है।

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  1. लक्ष्य प्राप्ति के लिए बस्तियां उजाड़ दी :

गैर सरकारी संस्था युथ फॉर यूनिटी एंड वोलन्टरी एक्शन (युवा) की 2016 की रिपोर्ट के अनुसार इंदौर शहर में होने वाले स्वच्छता सर्वेक्षण से पहले 727 परिवारों को उजाड़ दिया गया, इन परिवारों का सिर्फ इतना ही दोष था कि इन्होने शौचालय बनवाने के लिए नगर पालिका को पैसे जमा कर दिए थे और नगर पालिका ने शौचालय निर्माण नहीं किया।  सर्वेक्षण में अब्बल आने की अंधी होड़ में सरकार ने इन 727 गरीब परिवारों को उजाड़ दिया।  खुले में शौचमुक्त घोषित करवाने का अधिकारीयों पर इतना अधिक दबाव था कि उन्होंने गरीब परिवारों के सामान्य मानव अधिकारों की भी चिंता नहीं की और गरीबों की बस्ती उजाड़ दी।  ऐसा प्रतीत होता है कि घर को साफ़ करने के लिए घर में आग लगा देना ही स्वच्छ भारत अभियान का अंतिम लक्ष्य है।

  1. स्वच्छ भारत अभियान में स्वच्छकारो की दुर्गति :

सन 2015 में, बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में सिर पर मैला उठाने की प्रथा को तीन वर्ष के अंदर पूरी तरह समाप्त किये जाने का लक्ष्य रखा था, जोकि प्रधानमंत्री और बीजेपी की अन्य घोषणाओं की तरह जुमला ही साबित हुआ।  आंकड़े बता रहे हैं कि वर्ष 2017 तक हर पांचवे दिन एक स्वच्छकार (गटर कामदार) की दुर्घटनावश मृत्यु हो रही है, जो कि एक अमानवीय और आपराधिक कृत्य है।

वर्ष 2017 के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 13000 लोग सिर पर मैला उठाने का अमानवीय कार्य करने में लगे हुए हैं।  2018 के विभिन्न मंत्रालयों द्वारा संयुक्त रूप से गठित टास्क फाॅर्स की रिपोर्ट के अनुसार 53236 लोग सिर पर मैला उठाने के कार्य में लगे हुए हैं।  जबकि स्वतंत्र सर्वेक्षण और अध्ययन सिर पर मैला उठाने के  कार्य में लगे लोगों की संख्या को 50 लाख से अधिक बता रहे हैं। ये आंकड़े तब हैं जबकि यू.पी.ए सरकार ने वर्ष 2013 में सिर पर मैला उठाने की कुप्रथा को कानूनी रूप से पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया था,  मोदी सरकार के जातिगत भेदभाव और प्रताड़ना का यह जीता जागता नमूना है।

  1. कम आबंटन के वावजूद खर्च न हो पाना :

ग्रामीण विकास पर संसद की स्थायी समिति ने ‘पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय’ से सम्बंधित अपनी 2017 -2018 की रिपोर्ट में स्वच्छ भारत मिशन के लिए आबंटित धनराशि को बहुत कम पाया गया है। वर्ष 2016 -17 में स्वच्छता मिशन के लिए मंत्रालय ने 14000 करोड़ रुपये की मांग की थी, जबकि आवंटित सिर्फ 9000 करोड़ रुपये ही हुए, इस पर जब मंत्रालय ने आपत्ति जताई तो राशि को बढाकर 10500 करोड़ कर दिया गया था, हालंकि वो भी निर्धारित जरूरत से काफी कम था।

इसमें भी एक रोचक तथ्य यह है कि मई 2018 तक राज्यों द्वारा 9890 करोड़ रुपये की धनराशि खर्च ही नहीं हुई, और इसका सबसे बड़ा कारण कार्यक्रम की डिजाइनिंग के अंदर ही छुपा हुआ था, यानि कि जो राज्य कम धनराशि खर्च करेंगे उन्हें अगले वित्त वर्ष में और भी कम धन राशि मिलेगी;  और इसी कारण बड़े पैमाने पर बिना खर्च की हुई धनराशि इकठ्ठा होती जा रही है, और इसमें कुछ बदलाव की गुंजाइश भी नहीं है क्योंकि स्वच्छ भारत अभियान को धरातल में उतारने के लिए राज्यों, उनके अधिकारीयों और कर्मचारियों की क्षमता विकसित करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा गए हैं।

पिछली सरकारों के द्वारा स्वच्छता की दिशा में किये गए कार्यों को नकारने और मोदी सरकार की स्वच्छ भारत मिशन में नाटकीय प्रगति दिखाने के लिए हर प्रकार के प्रपंच किये जा रहे हैं।  आकड़ों में आपराधिक स्तर पर फेरबदल  किया जा रहा है जबकि विज्ञापनों के माध्यम से लोगो को भ्रमित किया जा रहा है। 2 अक्टूबर 2019 की समय सीमा तक सम्पूर्ण भारत को खुले में शौच मुक्त करने के किये गांवो, जिला पंचायतों, जिलों को झूठे तौर पर खुले में शौच मुक्त घोषित किया जा रहा है।

सरकार द्वारा प्रायोजित अध्ययन के साथ साथ गैर आधिकारिक – गैर सरकारी अध्ययन और यहाँ तक कि सी.ए.जी भी समय समय पर स्वच्छ भारत अभियान को आईना दिखाती रहती है।  किसी भी कीमत में प्रगति दिखाने की अंधी दौड़ में बिना यह जाने कि शौचालय का निर्माण कितना प्रभावी रहेगा, या बिना यह जाने कि इससे स्वच्छ पेयजल मुहैया करवाने के लक्ष्य पर कितना प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, अधाधुंध तरीके से शौचालयों का निर्माण किया जा रहा है।

सरकार की गंभीरता इस हद तक संदिग्ध मानी जा रही है कि कोई भी स्वतंत्र संस्था सरकार के आंकड़ों और दावों पर विश्वास करने को तैयार नहीं है।  ये यू.पी.ए सरकार के मनरेगा कार्यक्रम लागू करने की प्रक्रिया के बिलकुल उल्टा है, जहां स्वतंत्र संस्थाओं द्वारा अध्ययन, सोशल ऑडिट, गैर सरकारी शोध करने की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जा रहा था । जबकि मोदी सरकार स्वच्छ भारत अभियान की सच्चाई को दबाने के लिए हर संभव प्रयास कर रही है।

अन्य कार्यक्रमों और परियोजनाओं की तरह स्वच्छ भारत अभियान भी पूरी तरह खोखले दावों, झूठे आंकड़ों, और भ्रमित करने वाले विज्ञापनों पर आधारित एक सफ़ेद झूठ है।  इस कार्यक्रम को ईमानदारी से लागू करने में जब प्रधानमंत्री की नियत ही साफ़ नहीं है तो फिर देश कैसे साफ़ होगा, ये प्रश्न देश के सामने मुँह बाये खड़ा है।

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